________________
५८]
श्री सिद्धचक्र विधान
मन इन्द्रिय अव्यक्त स्वरूप अनूप हो,
नमूं सिद्ध गुण सागर स्वातम रूप हो॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनमानसंरम्भअव्यक्तस्वरूपाय नमः अध्यं ॥६९ ॥ सोरठा
. नानुमोद वच योग, मान सहित संरम्भमय। दुर्लभ इन्द्री भोग, परम सिद्ध प्रणमूं यदा। ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमानसंरम्भदुर्लभाय नमः अर्घ्यं ॥७० ॥
चौपाई .. समारम्भ जिन वैन न द्वार, करत नहीं हैं मान संभार। ज्ञान सहित चिन्मूरति सार, परम गम्य हैं निर-आकार ॥
ॐ ह्रीं अकृतवचनमानसमारम्भपरमगम्यनिराकाराय नमः अर्घ्यं ॥७१ ॥ वचन प्रवृत्ति मानयुत ठान, समारम्भ विधि नाहिं करान। शुद्ध स्वभाव परम सुखकार, नमूं सिद्ध उर आनन्द धार॥
ॐ ह्रीं अकारितवचनमानसमारम्भपरमस्वभावाय नमः अर्घ्यं ७२॥ वचन प्रवृत्ति मानयुत होय, समारम्भ मय हर्षित सोय। त्यागत एक रूप ठहराय, नमूं एकत्व गती सुखदाय॥ ___ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमानसमारम्भएकत्वगताय नमः अर्घ्यं ।।७३ ।। मानी जिय निज वचन उचार, वरतत हैं आरम्भ मँझार। परमातम हो तजि यह भाव, नमूं धर्मपति धर्म स्वभाव॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनमानारम्भपरमात्मधर्मस्वभाय नमः अर्घ्यं ॥७४ ॥
सोरठा मानी बोले बैन, परप्रेरण आरम्भ में। सो. त्यागो तुम ऐन, शाश्वत सुख आतम नमूं॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनमानारम्भशास्वतानन्दाय नमः अर्घ्यं ।।७५ ।।