________________
श्री सिद्धचक्र विधान
हर्षित वचन उचार, मान सहित आरम्भमय। सो तुम भाव विडार, निजानन्द रस घन नमूं।
ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमानारम्भअमृतपूरणाय नमः अयं ॥७६ ॥ धरि कुटिल भाव जो कहत बैन, संरम्भ रूप पापिष्ट ऐन। तुम धन्य-धन्य यह रीति त्याग, हो बेहद धर्मस्वरूप भाग॥
ॐ हीं अकृतवचनमायासंरम्भअनन्तधर्मेकरूपाय नमः अर्घ्यं ॥७७ ॥ मायायुत वचनन को प्रयोग, संरम्भ करावत अशुभ योग। तुम यह कलङ्क नहिं धरो लेश, हो अमृत शशि पूजूं हमेश॥ __ॐ ह्रीं अकारितवचनमायासंरम्भअमृतचन्द्राय नमः अर्घ्यं ॥७८ ॥ वचमायायुत संरम्भ कीन, सो पापरूप भाषो मलीन। तिस त्याग अनेक गुणात्म रूप, राजत अनेक मूरत अनूप॥ __ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमायासंरम्भअनेकमूर्तये नमः अर्घ्यं ॥७९ ।। तुमसमारम्भ की विधि विधान, नहिं करत कुटिलताभेदठान। हो नित्य निरञ्जन भाव युक्त, मैं नमूं सदा संशय विमुक्त ॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनमायासमारम्भनित्यनिरञ्जनस्वभावाय नमः अर्घ्यं ॥८० ॥
. दोहा मायायुत निज बैन”, समारम्भ के हेत।
नहिं प्रेरित पर को नमू, निजगुण धर्म समेत॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनमायासमारम्भआत्मैकधर्माय नमः अर्घ्यं ॥८१ ।। मायाकरि बोलत नहीं, समारम्भ हर्षाय।
सूक्ष्म अतीन्द्रिय वृष नमू, नमूं सिद्ध मन लाय॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमायासमारम्भपरमसूक्ष्माय नमः अर्घ्यं ॥८२॥