________________
६०]
श्री सिद्धचक्र विधान
मायायुत आरम्भ की, वचन प्रवृत्ति नशाय । नमि अनन्त अवकाश गुण, ज्ञान द्वार सुखदाय ॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनमायारम्भअनन्तावकाशाय नमः अर्घ्यं ॥ ८३ ॥ मायायुत आरम्भमय, मेट वचन उपदेश । भये अमल गुण ते नमूं, रागद्वेष नहीं लेश ॥ ॐ ह्रीं अर्हं अकारितवचनमायारम्भअमलगुणणाय नमः अर्घ्यं ॥८४॥ मायायुत आरम्भमय, मैंठ वचन आनन्द । भये अनन्त सुखी नमूं, सिद्ध सदा सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमायारम्भनिरवधिसुखाय नमः अर्घ्यं ॥ ८५ ॥ जो परिग्रह को चाह लोभसो मानिये,
विधि विधान ठानत संरम्भ बखानिये । वचन द्वार नहिं करें नमूं परमातमा,
सब प्रत्यक्ष लखें व्यापक धर्मातमा ॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनलोभसंरम्भव्यापकधर्माय नमः अर्घ्यं ॥ ८६ ॥ वर्तावन संरम्भ हेत पर के तई,
लोभ उदै करि वचन कहैं हिंसामई । नमूं सिद्ध पद यह विपरीत सु जिन हरो,
सकल चराचर ईश व्यापक गुण वरो ॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनलोभसंरम्भव्यापकगुणाय नमः अर्घ्यं ॥ ८७ ॥ लोभी वच संरम्भ हर्ष परकाशनं,
नाना विधि सञ्चरें पाप दुःख कारनं ।