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श्री सिद्धचक्र विधान
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सो तुम नाशत शाश्वत ध्रुवपद पाइयो,
नमूं अचल गुण सहित सिद्ध मन भाइयो॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनलोभसंरम्भअचलाय नमः अयं ॥८॥
सोरठा समारम्भ के बैन, लोभ सहित पर आसरें। तज निरलम्बी ऐन, नमूं सिद्ध उपर धारिकें। ॐ ह्रीं अकृतवचनलोभसमारम्भनिरालंबाय नमः अयं ॥८९॥ समारम्भ उपदेश, लोभ उदै थिति मेटिकें। पायो अचल स्वदेश, नमूं निराश्रय सिद्ध गुण॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनलोभसमारम्भनिराश्रयाय नमः अयं ॥१०॥ नानुमोद वच लोभ, समारम्भ परवृत्त में। नमूं तिन्हैं तजि क्षोभ, नित्य अखण्ड विराजते॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनलोभसमारम्भअखण्डाय नमः अध्यं ॥११॥
दोहा लोभ सहित आरम्भ को, करत नहीं व्याख्यान। नूतन पञ्चम गति लहो, नमूं सिद्ध भगवान॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनलोभारम्भविपरीतावस्थाय नमः अध्यं ॥१२॥ लोभ वचन आरम्भ को, कहत न पर के हेत। समयसार परमातमा, नमत सदा सुख देत॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनलोभारम्भसमयसाराय नमः अध्यं ॥१३॥
सोरठा नानुमोद वच द्वार, लोभ सहित आरंभमय। अजर अमर सुखकार, नमूं निरन्तर सिद्धपद॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनलोभारम्भनिरन्तराय नमः अध्यं ॥१४॥