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श्री सिद्धचक्र विधान
अडिल्ल कोधित रूप भयङ्कर हस्तादिक तनी, करत समस्या संरम्भ प्रकाशनी। सो तुम नाशो कायगुप्ति निंद्य करि यह तदा, दृष्टि अगोचर कायगुप्ति प्रणमूं सदा॥ ॐ ह्रीं अकृतकायक्रोधसंरम्भकायगुप्तये नमः अर्घ्यं ॥९५ ॥
सोरठा पर प्रेरण निज काय, क्रोध सहित संरम्भ तज। चेतन मूरति पाय, शुद्ध काय प्रणमूं सदा॥ ॐ ह्रीं अकारितकायक्रोधसंरम्भशुद्धकायाय नमः अर्घ्यं ॥१६॥ हर्षित शीश हिलाय, क्रोध उदय समरम्भ में। त्यागत भये अकाय, नमूं सिद्ध पद भावयुत॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायक्रोधसंरम्भअकायाय नमः अर्घ्यं ॥२७॥ समारम्भ विधि मेटि, कायिक चेष्टा क्रोध की। स्वै गुणपर्य समेत, भक्ति सहित प्रणमूं सदा॥ ॐ ह्रीं अकृतकायक्रोधसमारम्भस्वान्वयगुणाय नमः अर्घ्यं ॥९८॥
दोहा समारम्भ विधि क्रोध युत, तनसों नहीं कराय। नित प्रति रति निजभाव मैं, बन्दूं तिनके पाय॥ ॐ ह्रीं अकारितकायक्रोधसमारम्भभाववरतये नमः अर्घ्यं ॥१९॥ समारम्भ सो कायसो, क्रोध सहित परसंस। निज अभिन्न पद पाइयो, नमूं त्याग सरवंस॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायक्रोधसमारम्भसान्वयधर्माय नमः अयं ॥१०॥