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श्री सिद्धचक्र विधान
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लोभी मन समरम्भ को, मानें नहीं आनन्द। नमं नमूं परमात्मा, भये सिद्ध जगवृन्द। ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोलोभसंरम्भसिद्धभावाय नमः अयं ॥५२॥ समारम्भ नहिं करत हैं, लोभी मन के द्वार। चिदानन्द चिद्देव तुम, नमूं लहूँ पद सार॥
ॐ ह्रीं अकृतमनोलोभसमारम्भचिद्देवाय नमः अयं ॥५३॥ परसों भी पूर्वोक्त विधि, कबहूँ नहीं कराय। निराकार परमात्मा, नमूं सिद्ध हर्षाय॥ ॐ ह्रीं अकारितमनोलोभसमारम्भनिराकाराय नमः अध्यं ॥५४॥ ऐसे ही पूर्वोक्त विधि, हर्षित होवें नाहिं । चित्सरूप साकारपद, धारत हूँ उरमाहिं॥ . ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोलोभसमारम्भसाकाराय नमः अयं ॥५५॥ - रचना हिंसा काज की, लोभी मन के द्वार।
नहीं करैं हैं ते नमू, चिदानन्द पद सार॥ - ॐ ह्रीं अकृतमनोलोभारम्भचिदानन्दाय नमः अयं ॥५६॥ लोभी मन प्रेरित नहीं, पर को आरम्भ हेत। चिनमय रूपी पद धरै, नमूं लहूँ निज खेत॥ ॐ ह्रीं अकारितमनोलोभारम्भचिन्मयस्वरूपाय नमः अध्यं ॥५७॥ मन लोभी आरम्भ में, आनन्द लहें न लेस। निजपद में नित रमत हैं, ध्याऊँ भक्ति विशेष॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोलोभारम्भस्वरूपाय नमः अयं ॥१८॥