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श्री सिद्धचक्र विधान
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निज समरथ कर साधियो, निज पुरुषारथ सार। . सिद्ध भये सब काम, तुम सिद्ध नाम सुखकार॥
ॐ ह्रीं अर्ह सिद्धकर्मक्षया नमः अयं ॥८८०॥ पृथ्वी जल अगनी पवन, जानत इनके भेद। गुण अनन्त पर्याय सब, सो विभाग परिछेद ॥ ॐ ह्रीं अहँ चार्वकादिमिथ्यामतनिवारकाय नमः अर्घ्यं ॥८८१॥ निज संवेदन ज्ञान में, देखत हौ प्रत्यक्ष । रक्षक हो, तिहुँलोक के, हम शरणागत पक्ष॥
___ॐ ह्रीं अर्ह प्रत्यक्षकप्रमाणाय नमः अर्घ्यं ॥८८२॥ . विद्यमान शिवलोक में, स्वैगुण पर्य समेत। कहैं अभाव कुमत मती, निज पर धोका देत॥
ॐ ह्रीं अहँ अस्तिमुक्ताय नमः अर्घ्यं ॥८८३॥ तुम आगम के मूल हो, अपर गुरू है नाम। तुम वाणी अनुसार ही, भये शास्त्र अभिराम॥
. ॐ ह्रीं अहँ गुरुश्रुतये नमः अर्घ्यं ॥८८४ ॥ तीन लोक के नाथ हो, ज्यों सुरगण मैं इन्द्र। निजपद्र रमन स्वभाव धर, नमें तुम्हें देवेन्द्र ॥
ॐ ह्रीं अर्ह त्रिलोकनाथाय नमः अर्घ्यं ॥८८५॥ सब स्वभाव अविरुद्ध हैं, निजपर घातक नाहिं। सहचारी परिणाम हैं, निवसत हैं तुम माहि॥
ॐ ह्रीं अर्ह स्वस्वभावाविरुद्धजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८८६ ॥ ब्रह्म ज्ञान को वेद कर, भये शुद्ध अविकार। पूरण ज्ञानी हो नमू, लहो वेद की सार॥
ॐ ह्रीं अहँ ब्रह्मदिवे नमः अर्घ्यं ॥८८७॥