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श्री सिद्धचक्र विधान
शब्द ब्रह्म के ज्ञानतें, आतम-तत्त्व विचार। शुक्लध्यान में लय भए, हो अतर्क अविचार॥
___ ॐ ह्रीं अर्ह शब्दाद्वैतब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥८८८ ॥ सूक्षम तत्त्व प्रकाश कर, सूक्षम कर्म उच्छेद। मोक्षमार्ग परगट कियो, कहो सु अन्तर भेद॥
ॐ ह्रीं अहँ सूक्ष्मतत्त्वप्रकाशकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८८९॥ तीन शतक त्रेसठ जु हैं, सब मानै पाखण्ड। धर्म यथारथ तुम कहो, तिन सब को करिखण्ड।
ॐ ह्रीं अहँ पाखण्डघ्नाय नमः अर्घ्यं ॥८९०॥ . कर्णरूप करतार हो, कोईक नय के द्वार। सुर मुनि करि पूजत भए, माननीक सुखकार॥
ॐ ह्रीं अहँ नयौघयुजे नमः अयं ॥८९१॥ केवलज्ञान उपाइकें, तदनन्तर हो मोक्ष। साक्षात बड़ भागते, पूजू इहाँ परोक्ष॥ . ॐ ह्रीं अहँ अन्तकृते नमः अर्घ्यं ॥८९२॥ शरणागत को पार कर, देत मोक्ष अभिराम। तारण-तरण सु नाम है, तुम पद करूँ प्रणाम।
ॐ ह्रीं अहँ पारकृते नमः अयं ॥८९३ ॥ भव समुद्र गम्भीर हैं, कठिन जास को पार। निज पुरुषारथ करि तिरै, गहो किनारो सार॥
ॐ ह्रीं अर्ह तीरप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥८९४॥ एक बार जो शरण गहि, ताको हो हितकार। यातें सब जग जीव के, हो आनन्द दातार॥
ॐ ह्रीं अहँ परिहितस्थिताय नमः अर्घ्यं ॥८९५ ॥