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श्री सिद्धचक्र विधान
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रत्नत्रय निज नेत्रसों, मोक्षपुरी पहुँचात। महादेव हो जगत पितु, तीनलोक विख्यात ॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ रत्नत्रयनेत्रजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८९६ ॥ तीन लोक के नाथ हो, महा ज्ञान भण्डार। सरल भाव बिन कपट हो, शुद्धबुद्ध अविकार॥
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धबुद्धजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८९७ ॥ निश्चय वा व्यवहार के, हो तुम जाननहार। वस्तुरूप निज साधियो, पूजत हूँ निरधार ॥ ___ॐ ह्रीं अहँ ज्ञानकर्मसमुच्चयिने नमः अर्घ्यं ॥८९८ ॥ सुरनर पशु न अघावते, सभी ध्यावते ध्यान। तुमको नित ही ध्यावते, पावै सुख निर्वाण॥ ....... ॐ ह्रीं अहँ नित्यतृप्तजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८९९ ॥ कर्म मैल प्रक्षाल करि, तीनों योग संभार। पापशैल चकचूर कर, भये अयोग सुखार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ पापमलनिवारकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९००॥ सूरज हो निज ज्ञान घन, ग्रहण उपद्रव नाहिं। बेखटके शिवपंथ सब, दीखत है जिस माहिं।
ॐ ह्रीं अर्ह निरावरणज्ञानघनजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९०१॥ जोग योग सङ्कल्प सब, हरो देह के साथ। रहो अकम्पित थिर सदा, मैं नाऊँ निज माथ॥
ॐ ह्रीं अहँ उच्छिन्नयोगाय नमः अर्घ्यं ॥९०२॥ जो सुथिरता को हरै, करै आगमन कर्म । तुम . तासों निर्लेप हो, नाशौ मोह मद शर्म॥ ___ॐ ह्रीं अहँ योगकृतनिर्लेपाय नमः अर्घ्यं ॥९०३॥