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श्री सिद्धचक्र विधान
नहिं विकार आवै कभी, रहो सदा सुखरूप। रोग शोक व्यापै नहीं, निवसे सदा अनूप॥
ॐ हीं अहं निर्विकृतये नमः अयं ॥८७२॥ निज पौरुष करि सूर्य सम, हरो तिमिर मिथ्यात। . तुम पुरुषारथ सफल है, तीनलोक विख्यात॥
ॐ ह्रीं अहँ मिथ्यातिमिरविनाशक नमः अध्यं ॥८७३ ॥ वस्तु परीक्षा तुम बिना, और झूठ करखेद। अन्धकूप में आप सर, डारत हैं निरभेद॥
ॐ ह्रीं अर्ह मीमांसकाय नमः अयं ॥८७४॥ होनहार या लई, या पईये इस काल। अस्तिरूप सब वस्तु हैं, तुम जानौ यह हाल॥
ॐ ह्रीं अहँ अस्तिसर्वज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥८७५ ॥ जिनवाणी जिन सरस्वती, तुम गुण सों परिपूर। पूज्य योग तुम को कहैं, करैं मोह मद चूर॥
ॐ ह्रीं अहँ श्रुतपूज्याय नमः अयं ॥८७६ ॥ स्वयं स्वरूपनानन्द हो, निज पद रमण सुभाव। सदा विकाशित ही रहै, बन्दूं सहज सुभाव।
ॐ ह्रीं अहँ सदोत्सवाय नमः अयं ॥८७७॥ मन इन्द्री जानत नहीं, जाको शुद्ध स्वरूप। वचनातीत स्वगुण सहित, अमल अकाय अरूप॥
ॐ ह्रीं अर्ह परोक्षज्ञानागम्याय नमः अर्घ्यं ॥८७८ ॥ जो श्रुतज्ञान कला धरै, तिनको हो तुम इष्ट। तुमको निज प्रतिध्यावते, नाशे सकल अनिष्ट।
ॐ ह्रीं अहं इष्टपाठकाय नमः अयं ॥८७९ ॥