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श्री सिद्धचक्र विधान
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कर्ममैल पक्षाल के, निज आतम लवलाय। हो प्रसन्न शिवथल वि., अंतरमल विनशाय॥
ॐ ह्रीं अहं कर्मव्याधिविनाशकजिनाय नमः अध्यं ॥८६४॥ निजसुभाव निज वस्तुता, निज सुभाव मैं लीन। बन्दूं शुद्ध स्वभावमय, अन्य कुभाव मलीन॥ ___ॐ ह्रीं अहं निजस्वाभावस्थितजिनाय नमः अध्यं ॥८६५॥ निज स्वरूप परकाश है, निरावर्ण ज्यों सूर। तुम को पूजत भावसों, मोहकर्म को चूर॥ ___ॐ हीं अहं निरावरणसूर्यजिनाय नमः अध्यं ॥८६६॥ निज भावनतें मोक्ष हो, ते हो भाव रहात। स्वैगुण स्वै परजाय में, थिरता भाव धरात॥
ॐ हीं अहँ स्वरूपआरूढजिनाय नमः अयं ॥८६७॥ सब कुभाव को जीतियो, शुद्ध भये निरमूल। शुद्धातम कहलात हो, नमत नशे अघ शूल॥
4. ॐ ह्रीं अहं प्रकृतिप्राप्ताय नमः अध्यं ॥८६८॥ निज सन्मति के सन्मति, निज बुध के बुधवान। शुभ ज्ञाता शुभ ज्ञान हो, पूजत मिथ्या हान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ विशुद्धसम्मतिजिनाय नमः अयं ॥८६९॥ कर्म प्रकृति को अंश बिन, उत्तर हो या मूल। शुद्धरूप अति तेज घन, ज्यों रविबिम्ब अधूल॥ ____ॐ ह्रीं अर्ह शुद्धरूपजिनाय नमः अयं ॥८७०॥ आदि पुरुष आदीश जिन, आदि धर्म अवतार। आदि मोक्ष दातार हो, आदि कर्म हरतार॥
ॐ ह्रीं अहं आघवेधसे नमः अध्यं ॥८७१॥