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श्री सिद्धचक्र विधान
भवसागर के तीर हो, अचलरूप अस्थान। फिर नहिं जग में जन्म है, राजत हो सुख थान॥
ॐ ह्रीं अहं तटस्थाय नमः अध्यं ॥८५६॥ ज्यों के त्यों नित थिर रहो, अचल रूप अविनाश। स्वैपदमय राजत सदा, स्वयं ज्योति परकाश॥
ॐ ह्रीं अहं कूटस्थाय नमः अयं ॥८५७॥ तत्व अतत्व प्रकाशियो, ज्ञाता हो सब भास। ज्ञान मूर्ति हो ज्ञान धन, ज्ञान ज्योति अविनाश॥
ॐ हीं अहं ज्ञात्रे नमः अध्यं ॥८५८॥ पर निमित्त के योगतें, व्यापै नहीं विकार। निज स्वरूप में थिर सदा, हो अबाध निरधार॥
___ ॐ ह्रीं अहं निरबाधाय नमः अयं ॥८५९॥ चारवाक वा सांख्यमत, झूठी पक्ष धरात। अल्प मोक्ष नहिं होत है, राजत हो विख्यात ॥ . ॐ हीं अहं निराभावाय नमः अर्घ्यं ॥८६०॥ तारण-तरण जहाज हो, अतुल शक्ति के नाथ। भव वारिधि से पार कर, राखो अपने साथ ॥ ___ॐ ह्रीं अहं भववारिधिपारकाय नमः अर्घ्यं ॥८६१॥ बन्ध मोक्ष की कहन है, सो भी है व्यवहार। तुम विवहार अतीत हो, शुद्ध वस्तु निरधार॥ ___ ॐ हीं अहँ बन्धमोक्षरहिताय नमः अयं ॥८६२ ॥ चारों पुरुषारथ विर्षे, मोक्ष पदारथ सार। तुम साधो परधान हो, सब में सुख आधार॥
ॐ ह्रीं अहं मोक्षसाधनप्रधानजिनाय नमः अयं ॥८६३ ॥