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श्री सिद्धचक्र विधान
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सत्य यथारथ हो सब ठीक, स्वयं सिद्ध राजो शुभ नीक। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ हीं अहँ अकृत्रिमजिनाय नमः अध्यं ॥८४९ ॥
दोहा
जाकरि तुम को जानिये, सो है अगम अलक्ष। निर्गुण यातें कहत हैं, भव भय” हम रक्ष॥
ॐ ह्रीं अहं निर्गुणाय नमः अध्यं ॥८५०॥ । चेतनमय हैं अष्ट गुण, सो तुम में इक नाम। शुद्ध अमूरत देव हो, स्व प्रदेश चिदराम॥
___ॐ ह्रीं अह अमूर्ताय नमः अध्यं ॥८५१ ॥ उमापती त्रिभुवन धनी, राजत भू भरतार। निजानन्द को आदि ले, महा तुष्ट निरधार॥ - . ॐ ह्रीं अहँ उमापतये नमः अध्यं ॥८५२॥ व्यापक लोकालोक में, ज्ञान ज्योति के द्वार। लोकशिखर तिष्ठत अचल, करो भक्त उद्धार॥ ___ ॐ ह्रीं अहं सर्वगताय नमः अयं ॥८५३॥ योग प्रबन्ध निवारियो, राग-द्वेष निरवार। देह रहित निष्कम्प हो, भये अक्रिया सार॥
ॐ ह्रीं अर्ह अक्रियाय नमः अयं ॥८५४॥ सर्वोत्तम अति उच्च गति, जहाँ रहो स्वयमेव। देव वास है मोक्ष थल, हो देवन के देव॥
- ॐ ह्रीं अर्ह देवष्ठजिनाय नमः अयं ॥८५५॥