________________
३०६]
श्री सिद्धचक्र विधान
विशद शुद्ध मति हो साकार, तुम को जानत है सुविचार। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहं अक्षप्रमाणाय नमः अयं ॥८४१॥ नयसापेक्षक शुभ बैन, हैं अशंस सत्यारथ ऐन। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ _ ॐ ह्रीं अहं स्याद्वादवादिने नमः अयं ॥८४२॥ लोकालोक क्षेत्र के मांहि, आप ज्ञान है सब दरशाहिं। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥,
ॐ हीं अहं क्षेत्रज्ञाय नमः अध्यं ॥८४३॥ . अन्तर बाह्य लेश नहिं और, केवल आतम मई अघोर। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धात्मजिनाय नमः अयं ॥८४४॥ अन्तिम पौरुष साध्यो सार, पुरुष नाम पायो सुखकार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
. ॐ ह्रीं अहं पुरुषात्मजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८४५ ॥ चहुँगति में नरनेह मँझार, मोक्ष होत तुम नर आकार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ नराधिपाय नमः अर्घ्यं ॥८४६॥ दर्श ज्ञान चेतन की लार, निरावर्ण तुम हो अविकार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ निरावरणचेतनाय नमः अयं ॥८४७॥ भाव न वेद वेद नरदेह, मोक्ष रूप है नहिं सन्देह। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥
ॐ ह्रीं अहँ मोक्षरूपजिनाय नमः अयं ॥८४८॥