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श्री सिद्धचक्र विधान
आनन्दधार सु मगन है, सब विकल्प दुःख टार। पर आश्रित नहीं भाव है, पूनँ आनन्द धार॥ __ॐ ह्रीं अहँ सुप्रसन्नाय नमः अयं ॥५५४॥ परिपूरण गुण सीम हैं, सर्व शक्ति भण्डार। तुम से सुगुण न शेष हैं, जो न होय सुखकार॥
___ ॐ ह्रीं अहँ गुणांबुधये नमः अर्घ्यं ५५५॥ ग्रहण त्याग को भाव तज, शुभ वा अशुभ अभेद। व्याधिकार है वस्तु में, तुम्हें नमूं निरखेद ॥
ॐ ह्रीं अहँ पुण्यपापनिरोधकाय नमः अर्घ्यं ॥५५६॥ . . सूक्षम रूप अलक्ष है, गणधर आदि अगम्य। आप गुप्त परमातमा, इन्द्रिय द्वार अरम्य॥
ॐ ह्रीं अहँ महाअगम्यसूक्ष्मरूपाय नमः अर्घ्यं ॥५५७॥ अन्तर गुप्त स्व आत्मरस, ताको पान करात। पर प्रवेश नहीं रञ्च है, केवल मग्न सु जात॥ . ॐ ह्रीं अहँ सुगुप्तात्मने नमः अयं ॥५५८ ॥ निज कारक निज कर्णकर, निजपद निज आधार। सिदध कियो निज रस लियो, पूजत हूँ हितकार॥
ॐ ह्रीं अहँ सिद्धात्मने नमः अयं ॥५५९॥ नित्य उदै बिन अस्त हो, पूरण दुति घन आप। ग्रहै न राहू जास शशि, सो हो हर सन्ताप॥
- ॐ ह्रीं अहँ निरुपप्लवाय नमः अर्घ्यं ॥५६०॥ लियो अपूरव लाभ को, अचल भये सुखधाम। पूज रचैं जे भावसों, पूर्ण होइ सब काम॥
ॐ ह्रीं अहँ महोदकौय नमः अयं ॥५६१ ॥