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श्री सिद्धचक्र विधान
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है प्रशंस तिहुँलोक में, तुम पुरुषार्थ उपाय। पाय धर्म सु धाम को, पूजों तिनके पाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह महोपायाय नमः अर्घ्यं ॥५६२॥ गणधरादि जे जगतपति, तथा सुरेन्द्र सुरीश। तुमको पूजत भक्ति करि; चरण धरै निज शीश॥
___ ॐ ह्रीं अहं जगत्पितामहाय नमः अर्घ्यं ॥५६३ ॥ तुम ही सों भवि सुख लहै, तुम बिन दुःख ही पाय। नेमरूप यही है तुम्हें, महानाम हम गाय॥
___ॐ ह्रीं अहँ महाकाय नमः अयं ॥५६४॥ महा सुगुण की रास हो, राजत हो गुण रूप। लौकिक गुण औगुण सही, सब ही द्वेष सरूप॥ ... ॐ ह्रीं अहँ शुद्धगुणाय नमः अयं ५६५॥ . जन्म-मरण आदिक महा, क्लेश ताहि निरवार। परम सुखी तुमको नमू, पाऊँ भवदधि पार॥
. ॐ ह्रीं अहँ महाक्लेशनिवारणाय नमः अध्यं ॥५६६ ॥ रागादिक नहिं भाव है, द्रव्य देह नहिं धार। दोऊ मलिनता छांडि के, स्वच्छ भये निरधार॥
ॐ ह्रीं अहँ महाशुचये नमः अयं ॥५६७॥ आधि व्याधि नहीं रोग है, नित प्रसन्न निज भाव। आकुलता बिन शांति सुख, धारत सहज सुभाव॥
ॐ ह्रीं अहँ अरुजे नमः अयं ॥५६८॥ यथायोग्य पद थिर सदा, यथायोग्य निज लीन। अविनाशी अविकार हैं, नमैं सन्त चित दीन॥
ॐ ह्रीं अहं सदायोगाय नमः अयं ॥५६९॥