________________
२७२]
श्री सिद्धचक्र विधान
स्वामृत रस को पान करि, भोगत हैं निज स्वाद। पर निमित्त चाहै नहीं, करै न तिन को याद॥
ॐ ह्रीं अहं सदाभोगाय नमः अयं ॥५७० ॥ निर उपाधि निज धर्म में, सदा रहैं सुखकार। रत्नत्रय की मूरती, अनागार आगार ॥
ॐ हीं अहँ सदाधृतये नमः अयं ॥५७१॥ . रागद्वेष नहिं मूल है, है मध्यस्थ स्वभाव। ज्ञाता दृष्टा जगत के, पर सों नहीं लगाव॥
ॐ ह्रीं अहँ परमौदासीत्रे नमः अयं ॥५७२ ॥ . आदि अन्त बिन बहत है, परम धाम निरधार। अन्तर परत एक छिन, निज सुख परमाधार॥
___ॐ ह्रीं अहँ शाश्वताय नमः अर्घ्यं ॥५७३॥ मूल देह आकृति रहैं, हो नहिं अन्य प्रकार। सत्याशन इम नाम है, पूनँ भक्ति लगार॥ . ॐ ह्रीं अहँ सत्याशनाय नमः अर्घ्यं ॥५७४॥ परम शांति सुखमय सदा, क्षोभ रहित तिस स्वाम। तीनलोक प्रति शांति कर, तुमपद करूँ प्रणाम।
____ॐ ह्रीं अहँ शान्तिनायकाय नमः अर्घ्यं ॥५७५ ॥ काल अनन्तानन्त करि, रुल्यो जीव जगमाहिं। आत्मज्ञान नहिं पाइयो, तुम पायो है ताहि॥
ॐ ह्रीं अहँ अपूर्वविद्याय नमः अर्घ्यं ॥५७६ ॥ यथाख्यात चारित्र को, जानो मानो भेद। • आत्मज्ञान केवल थकी, पायो पद निरभेद॥
ॐ ह्रीं अहँ योगज्ञाय नमः अयं ॥५७७ ॥