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श्री सिद्धचक्र विधान
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धरम भार सिर धार कर, समाधान परकाज। तुम सम श्रेष्ठ न धर्म अरु, तारण-तरण जिहाज॥
ॐ ह्रीं अहँ धर्मवृषाय नमः अयं ॥५४६ ॥ क्रोध कर्म जड से नसौ, भयो क्षोभ सब दूर। महाशान्ति स्वरूप हो, पूजत अघ सब चूर॥
ॐ ह्रीं अहँ अक्षोभाय नमः अयं ।।५४७॥ इष्टमिष्ट बादर झरी, विद्युत विध कर खण्ड। जिष्णु महाकल्याण कर, शिवमग भाग प्रचण्ड॥ ___ॐ ह्रीं अहँ महाविधिखण्डाय नमः अर्घ्यं ॥५४८॥ अमृतमय तुम जन्म है, लोक तुष्टताकार। जन्म कल्याणक इन्द्र कर, क्षीर नीर कर धार॥
. ॐ ह्रीं अहँ अमृतोद्भवाय नमः अर्घ्यं ॥५४९ ॥ इन्द्री विषय सुविषहरण, काम पिशाच विडार। मूर्तीक शुभ मन्त्र हो, देव ज● हित धार॥
. ॐ ह्रीं अहँ मन्त्रमूर्तये नमः अर्घ्यं ॥५५०॥ । सौम्य दशा प्रगटी घनी, जाति विरोधी जीव। बैर छांड समभाव धर, सेवत चरण सदीव॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ निर्वेरसौम्यभावाय नमः अयं ॥५१॥ पराधीन इन्द्री बिना, राग विरोध निवार। हो स्वाधीन न कर्ण पर, स्वयं सिद्ध सुखकार॥
ॐ ह्रीं अहँ स्वतन्त्राय नमः अर्घ्यं ॥५५२॥ ब्रह्मरूप नहीं बाह्य तन, संभव ज्ञान स्वरूप। स्वयं प्रकाश विलास धर, राजत अमल अनूप॥
ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मसंभवाय नमः अर्घ्यं ॥५५३॥