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श्री सिद्धचक्र विधान
दया नीति बरताइयो, सुखी किये जगजीव। कल्पित राग ग्रसत नहीं, जानत मार्ग सदीव॥
ॐ ह्रीं अहँ दयाध्वजाय नमः अयं ॥५३८॥ केवल ब्रह्म स्वरूप हो, अन्तर बाह्य अदेह। ज्ञान ज्योति घन नमत हूँ, मन-वच-तन धरि नेह॥
ॐ ह्रीं अहँ ब्रह्मयोनये नमः अर्घ्यं ॥५३९॥ स्वयं बुद्ध अविरुद्ध हो, स्वयं ज्ञान परकाश। निज परभाव दिखात हो, दीपक सम प्रतिभास॥
ॐ ह्रीं अहँ स्वयंबुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥५४०॥ रागादिक मल मेटियो, महापवित्र सुखाय। शुद्ध स्वभाव धरै करै, सुरनर थुति न अघाय॥
___ॐ ह्रीं अहँ पूतात्मने नमः अयं ॥५४१॥ वीतराग श्रद्धानता, सम्पूरण वैराग। द्वेष रहित शुभ गुण सहित, रहूँ सदा पग लाग॥
. ॐ ह्रीं अहँ स्नातकाय नमः अर्घ्यं ॥५४२ ॥ माया मद आदिक हरे, भये शुद्ध सुख खाद। निर्मल भाव थकी जनूँ, होत पाप की हान॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ अमदभावाय नमः अयं ॥५४३ ॥ अतुल वीर्य जा ज्ञान में, सूर्य समान प्रकाश। मोक्षनाथ निज धर्म जुत, स्व ऐश्वर्य विलास॥
____ॐ ह्रीं अहं परमैश्वर्याय नमः अर्घ्यं ॥५४४॥ मत्सर क्रोध जु ईरषा, परम द्वेष परभाव। सो तुम नाशो सहज ही, निन्दित दुःखित विभाव॥
ॐ ह्रीं अहँ वीतमत्सराय नमः अर्घ्यं ॥५४५ ॥