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श्री सिद्धचक्र विधान
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क्रोध प्रकृति विनाश के, धरै क्षमा निज भाव।. समरस स्वाद सु लहत हैं, बन्दूं शुद्ध स्वभाव॥
ॐ ह्रीं अहँ महाक्षमाय नमः अयं ॥५३०॥ मोह रूप सन्तान बिन, शीतल महा स्वभाव। पूरण सुख आकुल नहीं, बन्दूं मन धर चाव॥
ॐ ह्रीं अहँ महाशीतलाय नमः अर्घ्यं ॥५३१॥ मन इन्द्रिय के क्षोभ बिन, महा शांति सुख रूप। निज पद रमण स्वभाव नित, मैं बन्दूं शिवभूप॥
ॐ ह्रीं अहँ महाशान्ताय नमः अयं ॥५३२॥ मन इन्द्रिय को दमन कर, पायो ज्ञान अतीन्द्र। .. स्वाभाविक स्वैशक्ति कर, बन्दूं भये जिनेन्द्र ॥
___ॐ ह्रीं अहँ महादमाय नमः अर्घ्यं ॥५३३॥ पर पदार्थ को क्लेश तजि, व्यापँ निजपद माहिं। स्वच्छ स्वभाव विराजते, पूजत हूँ नित ताहि॥ - ॐ ह्रीं अहं निर्लेपाय नमः अर्घ्यं ॥५३४॥ संशयादि दृष्टी नहीं, सम्यक् ज्ञान मझार। सब पदार्थ प्रत्यक्ष लख, महा तुष्ट सुखकार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ निर्भान्ताय नमः अयं ॥५३५ ॥ शांति रूप निज शांति गुण, सो तुम्हीं में पाय। निज मन शांति सुभाव धर, पूजत हूँ युग पाय॥
ॐ ह्रीं अहं प्रशान्ताय नमः अर्घ्यं ॥५३६॥ मुनि श्रावक द्वै धर्म के, तुम अधिपति शिवनाथ। भविजन को आनन्द करि, तुम्हें नवाऊँ माथ॥
ॐ ह्रीं अहँ धर्माध्यक्षाय नमः अयं ॥५३७ ॥