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श्री सिद्धचक्र विधान
महा श्रेष्ठ मुनिराज हो, निज पद पायौ सार। महा परम निरग्रन्थ हो, पूजत हूँ मन धार॥
ॐ ह्रीं अहँ महर्षिणे नमः अयं ॥५२२॥ साधु भार दुर गमन है, ताहि उठावन हार। शिव-मंदिर पहुँचात हो, महाबली सुखकार॥
ॐ ह्रीं अहँ साधुधौरेयाय नमः अर्घ्यं ॥५२३॥ इन्द्री मन-जित जे जती, तिन के हो तुम नाथ। परम्परा मरजाद धर, देहु हमें निज साथ॥
ॐ ह्रीं अहँ यतिनाथाय नमः अर्घ्यं ॥५२४॥ चार संघ मुनिराज के, ईश्वर हो परधान। पर हित कर सामर्थ्य हो, निज सम करि भगवान॥
___ॐ ह्रीं अहँ मुनीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥५२५॥ गणधरादि सेवक महा, तिन आज्ञा शिरधार। समकित ज्ञान सु लक्षमी, पावत हैं निरधार॥
ॐ ह्रीं अहँ महामुनये नमः अर्घ्यं ॥५२६॥ महामुनी सर्वस्व हो, धर्म मूर्ति सरवांग। तिन को बन्दूं भाव युत, पाऊँ मैं धर्मांग॥
ॐ ह्रीं अहँ महामौनिने नमः अर्घ्यं ॥५२७॥ इष्टानिष्ट विभाव बिन, समदृष्टी स्वध्यान। मगन रहैं निज पद विर्षे, ध्यान रूप भगवान॥ __ॐ ह्रीं अहँ महाध्यानिने नमः अयं ॥५२८॥ स्व सुभाव नहीं त्याग हैं, नहीं ग्रहण पर माहिं। पाप कलाप न आप में, परम शुद्ध नमूं ताहि॥
ॐ हीं अहँ महाव्रतिने नमः अर्घ्यं ॥५२९ ॥