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- श्री सिद्धचक्र विधान
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वीतराग निर्विकल्प हैं, ज्ञान उदय निरशंस।. समरस भाव परम सुखी, नमत मिटै दुःख अंश॥
ॐ ह्रीं अहँ स्फुरितसमरसीभावाय नमः अर्घ्यं ॥५१४॥ एकै रूप विराजते, नय विकल्प नहिं ठोर। वचन अगोचर शुद्धता, पाप विनाशो मोर॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ एकीभावनयरूपाय नमः अयं ॥५१५ ॥ परम दिगम्बर मुनि महा, समदृष्टी मुनिनाथ। ध्यावें पार्दै परम पद, नमूं जोर जुग हाथ॥
ॐ ह्रीं अहं निर्ग्रन्थनाथाय नमः अयं ॥५१६॥ योग साधि योगी भये, तिन को इन्द्र महान। .. ध्यावत पावत परम पद, पूजत निज कल्याण।
____ॐ ह्रीं अहँ योगीन्द्राय नमः अर्घ्यं ॥५१७॥ शिव मारग सिद्धान्त के, पार भये मुनि ईश। तारण-तरण जिहाज हो, तुम्हें नमूं नित शीश॥
ॐ ह्रीं अहँ ऋषये नमः अर्घ्यं ॥५१८॥ निज स्वरूप को साधि कर, साधु भये जग माहिं। निजपर हितकर गुण धरै, तीन लोक नमि ताहि॥
ॐ ह्रीं अहँ साधवे नमः अयं ॥५१९ ॥ रागादिक रिपु जीति के, भये यती शुभ नाम। धर्म धुरन्धर परम गुरु, जुगपद करूँ प्रणाम॥
ॐ ह्रीं अहं पतये नमः अयं ॥५२०॥ पर-संपतिसूं विमुख हो, निजपद रुचि करि नेम। मुनि मन रञ्जन पद महा, तुम धारत हो एम॥
- ॐ ह्रीं अहँ मुनये नमः अर्घ्यं ॥५२१॥