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श्री सिद्धचक्र विधान
नित्य शौच सन्तोष मय, पर पदार्थसों रोक। निश्चय सम्यक् भावमय, हैं प्रधान यूं धोक॥
___ॐ ह्रीं अहं प्रधानाय नमः अर्घ्यं ॥५०६॥ ज्ञान ज्योति निज धरत हो, निश्चल परम सु ठाम। लोकालोक प्रकाश कर, मैं बन्दूं सुखधाम॥ ___ॐ ह्रीं अहँ स्वभासपरभासनाय नमः अर्घ्यं ॥५०७॥ एक स्थान सु थिर सदा, निश्चय चारतं भूप। शुध उपयोग प्रभावतें, कर्म खिपावन रूप॥ ___ॐ ह्रीं अहँ प्राणायामचरणाय नमः अर्घ्यं ॥५०८॥ . विषय स्वादसों हट रहैं, इन्द्री मन थिर होय। निज आतम लवलीन हैं, शुद्ध कहा₹ सोय॥
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धप्रत्याहाराय नमः अर्घ्यं ॥५०९ ॥ इन्द्री विषय न वश रहैं, निज आतम लवलाय।। सो जितेन्द्र स्वाधीन हैं, बन्दूं तिनके पाय॥ . ॐ ह्रीं अहं जितेन्द्रियाय नमः अर्घ्यं ॥५१०॥ ध्यान विर्षे सो धारणा, निज आतम थिर धार। ताके अधिपति हो महा, भये भवार्णव पार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ धारणाधीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥५११ ॥ रागादिक मल नाशिकें, ध्यान सु धर्म लहाय। अचल रूप राजैं सदा, बन्दूं मन-वच-काय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ धर्मध्याननिष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥५१२॥ . निजानन्द में मगन हैं, पर पद राग निवार। समदृष्टी राजत सदा, हमें करो भव पार ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ समाधिराजे नमः अयं ॥५१३॥