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श्री सिद्धचक्र विधान
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अधिपतिस्वामिस्वभाव निज, परकृतभाव विडार। तिहूँ वेद रति मान बिन, सम्पूरण सुखकार ॥
ॐ ह्रीं अहं निर्वेदप्रवृत्ताय नमः अयं ॥४९८॥ यथायोग पद पाइयो, यथायोग्य सम्पूर्ण । नमूं त्रियोग संभारिके, करूँ पाप मल चूर्ण॥ _ॐ ह्रीं अहं संपूर्णयोगिने नमः अयं ॥४९९॥ सब इन्द्रिय मन रोककैं, आरोहण तिस भाव। श्रेणी उच्च चढ़ाव में, तत्पर अन्त सु पाव॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ समारोहणतत्पराय नमः अयं ॥५०॥ एकाश्रय निज धर्म में, परसों भिन्न सदीव। सहज स्वभाव विराजते, सिद्धराज सब जीव॥
ॐ हीं अहँ सामायिकाय नमः अयं ॥५०१॥ राग द्वेष बिन सहज ही, राजत शुद्ध स्वभाव। मन विकल्प नहीं भाव में, पूजत हों धरि चाव॥
ॐ ह्रीं अहँ सामायिकिने नमः अयं ॥५०२॥ निजानन्द निज लक्षमी, भोगत ग्लानि न होय। अतुल वीर्य परभावतें, परमादी नहिं होय॥
- ॐ ह्रीं अहं निष्प्रमादाय नमः अय॑ ।।५०३ ॥ है अनादि सन्तान करि, कभी भयो नहिं आदि। नित्य शिवालय पूर्णता, बसैं जगत अघ वादि।
ॐ ह्रीं अहं अकृताय नमः अयं ॥५०४॥ पर पदार्थ नहिं इष्ट हैं, निजपद में लवलीन। विघ्न हरण मंगल करण, तुम पद मस्तक दीन।
ॐ ह्रीं अहँ परमभावाय नमः अर्घ्यं ॥५०५॥ .