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श्री सिद्धचक्र विधान
द्रव्य भाव दऊ वेद बिन, स्वातम रति सुख मान। पर आलिंगन रतिकरण, निरइच्छुक भगवान॥
ॐ ह्रीं अर्ह अवेदाय नमः अयं ॥४९०॥ घातिरहित स्वपर दया, निजानन्द रसलीन। सुखसों अवगाहन करें, सन्त चरण आधीन॥
___ॐ ह्रीं अर्ह प्रतिघाताय नमः अयं ॥४९१ ॥ निजानन्द स्व देश में, खण्ड-खण्ड नहीं होय। पूरण अविनाशी सुखी, पूजत हूँ भ्रम खोय॥
ॐ ह्रीं अहँ अछेद्याय नमः अयं ॥४९२॥ सिद्ध समान सु शुभ नहीं, और नाम विख्यात। कभू न जग में जन्म फिर, सोई दृढ़ कहलात॥
ॐ ह्रीं अर्ह दृढ़ीयसे नमः अयं ॥४९३ ॥ जन्म-मरण के कष्ट से, सर्व लोक भयवन्त। ताको नाश अभय करण, तुम्हें नमें जिय सन्त॥
ॐ ह्रीं अर्ह अभयङ्कराय नमः अर्घ्यं ॥४९४ ॥ ज्ञानानन्द स्व लक्षमी, भोगत हो निरखेद। महा भोग यातें भये, हैं स्वाधीन अवेद॥
____ ॐ ह्रीं अर्ह महाभोगाय नमः अर्घ्यं ॥४९५ ॥ असाधारण असमान हो, सर्वोत्तम उतकृष्ट । परसों भिन्न अभिन्न हो, पायो पद अविनष्ट।
___ ॐ ह्रीं अहं निरौपम्याय नमः अयं ॥४९६ ॥ दश लक्षण शुभ धर्म के, राजसम्पदा भोग। नायक हो जिन-धर्म के, पूजि नमैं तिहूँ योग।
ॐ ह्रीं अहँ धर्मसाम्राज्यनायकाय नमः अर्घ्यं ॥४९७ ॥