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श्री सिद्धचक्र विधान
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मोक्ष सम्पदा होत ही, नित अक्षय ऐश्वर्य। कौन मूढ़ कौड़ी लहै, सर्वोत्तम धनवर्य।
ॐ ह्रीं अहँ विभवाय नमः अयं ॥४८२॥ त्रिभुवन ईश्वर हो तुम्हीं, और जीव हैं रंक। तुम तज चाहै और को, एसो की बुध बंक॥
ॐ ह्रीं अहँ त्रिभुवनेश्वराय नमः अयं ॥४८३॥ उत्तरोत्तर तिहूँलोक मैं, दुर्लभ लब्धि कराय। तुम पद दुर्लभ कठिन है, महा भाग सों पाय॥
ॐ ह्रीं अहं त्रिजगदुर्लभाय नमः अर्घ्य ४८४॥ बढवारी परणामसो, पूर्ण अभ्युदय पाय। भई अनन्त विशुद्धता, भये विशुद्ध अथाय॥ _ ॐ ह्रीं अर्ह अभ्युदाय नमः अयं ॥४८५॥ तीन लोक मंगल करण, दुःखहारण सुखकार। हम को मंगल द्यो महा, पूजों बारम्बार ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ त्रिजगन्मंगलोदयाय नमः अयं ॥४८६॥ आप धर्म के सामने, और धर्म छुप जाँय। धर्म चक्र आयुध धरो, शत्रु नाश तब पाँय॥
ॐ ह्रीं अहँ धर्मचक्रायुधाय नमः अयं ॥४८७॥ सत्य शक्त तुम ही सही, सत्य पराक्रम जोर। है प्रसिद्ध इस जगत में, कर्म शत्रु शिरमौर ॥
ॐ ह्रीं अहं सद्योजाताय नमः अयं ॥४८८॥ मंगलमय मंगल करण, तीन लोक विख्यात। सुमरण ध्यान सुकरत ही, सकल पाप नशिजात॥
ॐ ह्रीं अर्ह त्रिलोकमंगलाय नमः अध्यं ।।४८९ ॥