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। श्री सिद्धचक्र विधान
दासनि को प्रतिपाल कर, शरणागत हितकार। भविदुःखियनकोपोषकर, दियोअखै पदसार॥
ॐ ह्रीं अहं भव्यबन्धवे नमः अयं ॥४७४॥ निराकरण करि कर्म को, सरल सिद्धगति धार। शिव थल जाय सुवास लहि, धर्म द्रव्य सहकार॥
ॐ ह्रीं अहं निरस्तकाय नमः अर्घ्यं ॥४७५ ॥ मुनि ध्यावें पार्दै सुपद, निकट भव्य धरि ध्यान। पावें निज कल्याण हित, ध्यान योग तुम मान॥
ॐ ह्रीं अहँ परमध्येयजिनाय नमः अर्घ्यं ॥४७६ ॥ . रक्षक हो जग के सदा, धर्म दान दातार। पोषित हो सब जीव के, बन्दूं भाव लगार॥
ॐ ह्रीं अहँ जगत्तापहराय नमः अर्घ्यं ।।४७७ ॥ मोह प्रचण्ड बली जयो, अतुल वीर्य भगवान। शीघ्र गमन करि शिव गये, नमूं हेत कल्याण॥ . ॐ ह्रीं अर्ह मोहारिजाय नमः अर्घ्यं ॥४७८ ॥ तीन लोक शिर मौर तुम, सब पूजत हरषाय। परमेश्वर हो जगत के, बन्दत हूँ नित पाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ त्रिजगत्परमेश्वराय नमः अर्घ्यं ॥४७९॥ लोकशिखर पर अचल नित, राजत हैं तिहुँकाल। सर्वोतम आसन लियो, लोक शिरोमणि भाल॥
. ॐ ह्रीं अर्ह विश्वासिने नमः अयं ॥४८०॥ विश्वभूति प्राणी के, ईश्वर हैं भगवान। 'सब के शिर पर पग धरै, सर्व आन तिन मान॥
___ॐ ह्रीं अहं विश्वभूतेशाय नमः अर्घ्यं ॥४८१ ॥