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श्री सिद्धचक्र विधान
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सत्य धर्म के मार्ग हो, ज्ञान मात्र निरशंस। तुम ही आश्रय पाय के, रहै न अघ को अंश।
ॐ ह्रीं अहं जगत्पात्रे नमः अयं ॥४६६ ॥ अतुल वीर्य स्वशक्ति हो, जीते कर्म जरार। तुम सम बल नहीं और में, होउ सहाय अवार॥
ॐ ह्रीं अर्ह अतुलबलाय नमः अयं ४६७॥ धर्म मूर्ति धरमातमा, धर्म तीर्थ बरताय। स्व सुभाव सो धर्म है, पायो सहज उपाय॥
ॐ ह्रीं अहं वृषाय नमः अयं ॥४६८॥ हिंसा को वर्जित करें, जे अपराध महान। परिग्रह अर आरम्भ के, त्यागी श्रीभगवान॥ . ॐ ह्रीं अहँ परिग्रहत्यागीजिनाय नमः अयं ॥४६९॥ सर्व सिद्ध तुम सुलभ कर, पावो स्वयं उपाय। साँचै हो वश करण को, जग में मन्त्र कराय॥
. ॐ ह्रीं अहँ मन्त्रकृते नमः अध्यं ॥४७०॥ जितने कछु शुभ चिह्न हैं, दीप्त अशेष स्वरूप। शुभ लक्षण सोहत अति, सहजे तुम शिव भूप॥ __ ॐ ह्रीं अहँ शुभलक्षणाय नमः अयं ॥४७१ ॥ लोकविर्षे तुम मार्गसो, मानत हैं बुधिवन्त। तर्क हेतु करुणा लिय, यातें माने सन्त॥ _ ॐ ह्रीं अहं लोकाध्यक्षाय नमः अध्यं ॥४७२॥ काहू के वश में नहीं, काहूँ नमत न शीश। कठिन रीति धारै प्रभू, नमूं सदा जगदीश॥
___ॐ ह्रीं अहँ दुराधर्षाय नमः अयं ॥४७३ ॥