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श्री सिद्धचक्र विधान
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जगत बन्धु गुणसिन्धु दयानिधि, बीजभूत कल्याण सर्वसिधि । अक्षय शिव स्वरूप श्रिय स्वामी, पूरण निजानन्द विश्रामी ॥ शरणागत स्वस्व सुहितकर, जन्म-मरण दुःख आधि व्याधि हर । सन्त भक्ति तुम हो अनुरागी, निश्चै अजर अमर पद भागी ॥
घत्तानन्द छन्द
जय जय सुखसागर सुजस उजागर, गुणगण आगर तारण हो । जय सन्त उधारण विपति विडारण,
सुख विस्तारण कारण हो ॥ तुम गुण गान परम फलदान, सो मन्त्र प्रमाण विधान करूँ । कर्मनि बैरी कहरी, असहैरी भव की व्याधि हरूँ ॥
'जहरी
ॐ ह्रीं अर्हं चतुःषष्टिदलोपरिस्थितसिद्धेभ्यो नमः महार्घं निर्वपामीति
स्वाहा ।
इत्याशीर्वादः । इति चतुर्थ पूजा सम्पूर्णम् ।
यहाँ पर ॐ ह्रीं अर्हं अ सि आ उ सा नमः मंत्र का १०८ • बार जाप देना चाहिये ।