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श्री सिद्धचक्र विधान
पञ्चमी पूजा
छप्पय छन्द ऊरध अधो सुरेफ बिन्दु हंकार बिराजे । अकारादि स्वर लिप्त कर्णिका अन्तु सु छाजे॥ वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व सन्धिवर। अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर॥ फुनि अंत है बेडयो परम सुर, ध्यावत अरिनागको। केहरिसम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो॥१॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिनः अष्टविंशत्यधिकशत गुण सहित विराजमान अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं। दोहा- सूक्ष्मादि गुण सहित हैं, कर्म रहित नीरोग। सिद्धचक्र सो थापहूँ, मिटें उपद्रव योग॥२॥
इति यन्त्र स्थापन
अथाष्टकं - चाल बारमासा छन्द चन्द्रवर्ण लखि चन्द्रकान्तमणि, मनतें स्त्रवै सुधारा हो। कंज सुवासित प्रासुक जलसों, पूजू पद अनुसारा हो। लोकाधीश शीश चूड़ामणि, सिद्धचरण उरधारा हो। चौसठि दुगुण सुगुण मणि सुमिरन सुमिरत ही भवपारा हो। ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥