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श्री सिद्धचक्र विधान
न अन्य की प्रवाह है, अचाह है न चाह है। निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥ ॐ ह्रीं स्वानन्दसन्तोषाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४३॥
सोरठा रागादिक परिणाम, हैं कारण संसार के। नाश लियो सुखधाम, नमत सदा भव भय हरण॥
ॐ ह्रीं शुद्धभावपर्यायाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४४॥ उदइक भाव विनाश, प्रगट कियो निज धर्म को। स्वातम गुण परकाश, नमत सदा भव भय हरण॥ .
ॐ ह्रीं स्वतन्त्रधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४५ ॥ निजगुण पर्याय रूप, स्वयं-सिद्ध परमातमा। राजत हैं शिव भूप, नमत सदा भव भय हरण॥
ॐ ह्रीं आत्मस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२४६ ॥ विमल विशद निज ज्ञान, हैं स्वभाव परिणतिमई। राजें हैं सुखखानि, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं परमचित्परिणामाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४७ ॥ दर्श ज्ञानमय धर्म, अचेतन धर्म प्रगट कहो। भेदाभेद सुपर्म, नमत सदा भव भय हरण॥ ___ ॐ ह्रीं चिद्रूपधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४८॥ दर्शज्ञान गुणसार, जीवभूत परमातमा। राजत सब परकार, नमत सदा भव भय हरण॥
ॐ ह्रीं चिद्रूपगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४९ ॥