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श्री सिद्धचक्र विधान
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अष्ट कर्म मल जार, दीप्तरूप निज पद लहो। स्वच्छ हेम उनहार, नमत सदा भव भय हरण॥
ॐ ह्रीं परमस्नातकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५०॥ रागादिक मल बोध, दोऊ विविध विधान विध। लहो शुद्ध प्रतिबोध, नमत सदा भव भय हरण॥ ____ॐ ह्रीं स्नातकधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५१ ॥ विधि आवरण विनाश, दर्श ज्ञान परिपूर्ण हो। लोकालोक प्रकाश, नमत सदा भव भय हरण॥ ___ॐ ह्रीं सर्वावलोकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५२॥ निजकर निज में वास, सर्व लोकसों भिन्नता। पायो शिव सुख रास, नमत सदा भव भय हरण॥ ___ॐ ह्रीं लोकाग्रस्थिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२५३॥ ज्ञान-भान की जोति, व्यापक लोकालोक में। दर्शन बिन उद्योत, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं लोकालोकाव्यापकाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२५४॥ जो कुछ धरत विशेष, सब ही सब आनन्दमय। लेश न भाव कलेश, नमूं सदा भव भय हरण॥ ___ ॐ ह्रीं अतुलभावाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५५ ॥ जिस आनन्द को पार, पावत नहीं यह जगतजन। सो पायो हितकार, नमत सदा भव भय हरण॥
ॐ ह्रीं आनन्दविधानाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५६॥ नित्य शर्म सुखकार, दर्शन ज्ञान चरित्रमय। मनसों दुविधा टार, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं रत्नत्रयसंयुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२५७॥