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श्री सिद्धचक्र विधान
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दोहा निज स्वरूप में लीनता, ज्यों जल पुतली वार। गुप्त स्वरूप नमूं सदा, लहूँ भवार्णव पार ॥ . ___- ॐ ह्रीं स्वरूपगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२३६ ॥ जोहै सोहै और नहिं, कछु निश्चय व्यवहार। शुद्ध द्रव्य परमातमा, नमूं शुद्धता धार ॥ ___ ॐ ह्रीं शुद्धद्रव्याय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२३७॥ पूर्वोत्तर सन्तति तनी, भव भव छेद कराय। असंसार पद को नमूं, यह भव वास नशाय॥ ॐ ह्रीं असंसाराय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२३८॥
अर्द्धनाराच छन्द हरो सहाय कर्ण को, सु भोगता विवर्ण को। • निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥ . ॐ ह्रीं स्वानन्दाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२३९॥ न हो विभावता कदा, स्वभाव में सुखी सदा॥ निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥ __ॐ ह्रीं स्वानन्दभावाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४०॥
अछेद रूप सर्वथा, उपाधि की नहीं व्यथा। निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥
ॐ ह्रीं स्वानन्दस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२४१॥ दुभेदता न वेद ही, सचेतना अभेद ही। निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥
ॐ ह्रीं स्वानन्दगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२४२॥