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श्री सिद्धचक्र विधान
उत्तम क्षायक भाव, क्षय उपशम सब गइ विनशि । पायो सहज सुभाव, अचल रूप वन्दों सदा ॥
ॐ ह्रीं अचलस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २२९ ॥ अथिर रूप संसार, त्याग सुथिर निज रूप गहि । रहो सदा अविकार, अचल रूप बन्दों सदा ॥ ॐ ह्रीं अचलस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३० ॥
मोतियादाम छन्द
निराश्रित स्वाश्रित आनन्द धाम, परैं परसों न परै कछु काम । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं निरालम्बाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२३१॥ अरोग अदोष अशोक अभोग, अनिष्ट संयोग न इष्ट वियोग । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥
ॐ ह्रीं अम्लबरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३२ ॥ अजीवन जीवन धर्म अधर्म, न काल अकाश लहैं तिस धर्म । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं निर्लेपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३३ ॥ अवर्ण अकर्व अरूप अकाय, अयोग असंयमता अकषाय । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं निष्कषायाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३४ ॥ न हो परसों रुप राग विभाव, निजातम में लवलीन स्वभाव । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं आत्मरतये सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३५ ॥