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श्री सिद्धचक्र विधान
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तिहुँकालतिहुँजगके सुखको, करवारअनन्त गुणाइनको। तुम एक समय सुख कीसमता, नहीं पाय नमूमन आनंदा॥ ह्रीं अतुलसुखाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२२३ ॥
नाराच छन्द सर्व जीव राश के सुभाव आप जान हो,
आप के सुभाव अंश और कौन ज्ञान हो। सो विशुद्ध भाव पाय जासकौ न अन्त हो,
राज हो सदीव देव चरण दास सन्त हो। ॐ ह्रीं अतुलभावाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२४॥ आप की गुणौघ वेलि फैलि है अलोकलों। शेष से भ्रमाय पत्र की न पाय नोकलों॥ सो विशुद्ध.॥
ॐ ह्रीं अतुलगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२५ ॥ सूर्य को प्रकाश एक देश वस्तु भास ही। आप को सुज्ञान भान सर्वथा प्रकाश ही॥ सो विशुद्ध.॥ ___ ॐ ह्रीं अतुलप्रकाशाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२६ ॥ तास रूप को गहो न फेरि जास नाश हो। स्वात्मवास में विलास आस त्रास नाश हो॥सो विशुद्ध.॥ ॐ ह्रीं आत्मवासजिनाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२७ ॥
सोरठा मोहादिक रिपु जीति, निजगुण निधि सहजें लहो। विलसो सदा पुनीति, अचल रूप बन्दों सदा॥
ॐ ह्रीं अचलगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२८॥