________________
३२८]
श्री सिद्धचक्र विधान
सो गुण गुणी सुभेद करि, सो जड़मती अजान। निज गुण गुणीसु एकता, स्वयंबुद्ध भगवान॥
ॐ ह्रीं अहँ स्वयंबुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥१०१६॥ निरावरण निज ज्ञान में, सर्व स्पष्ट दिखाय। संशय बिन नहिं भरम है, सुथिर रहो सुख पाय॥ ___ ॐ ह्रीं अहं निरावरणज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥१०१७ ॥ राग-द्वेष के अंश में, मत्सर भाव कहात। सो तुम नासो मूल ही, रहै कहाँसो पात॥
ॐ ह्रीं अहँ वीतमत्सराय नमः अयं ॥१०१८॥ .. अणुवत लोकालोक है, जाके ज्ञान मँझार। सो तुम ज्ञान अथाह है, बन्दूं मैं चित धार॥
ॐ ह्रीं अहँ अनन्तानन्तज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥१०१९॥ हस्तरेख सम देख हो, लोकालोक सरूप। सो. अनन्तदर्शन धरो, नमत मिटै भ्रम कूप॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तानन्तदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥१०२०॥ तीनलोक का पूज्यपन, प्रगट कहै दिखलाय। तीनलोक शिरवास है, लोकोत्तम सुखदाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ लोकशिखरवासिये नमः अर्घ्यं ॥१०२१॥ निज पद में लवलीन हैं, निज रस स्वाद अघाय। पर सों इह रस गुप्त है, कोटि यत्न नहिं पाय॥
ॐ ह्रीं अहँ सुगुप्तात्मने नमः अर्घ्यं ॥१०२२ ॥ कर्म प्रकृति को मूल नहीं, द्रव्य रूप यह भाव। महास्वच्छ निर्मल दिपै, ज्यों रवि मेघ अभाव। . ॐ ह्रीं अहँ पूतात्मने नमः अर्घ्यं ॥१०२३ ॥