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श्री सिद्धचक्र विधान
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हीन अभाव न शक्ति है, कर्मबन्ध को नाश। उदय भये तुम गुण सकल, महाविभव की राश॥
___ॐ ह्रीं अहँ महोदयाय नमः अर्घ्यं ॥१०२४॥ पाप रूप दुःख नाशियो, मोक्ष रूप सुख राश। दासन प्रतिमंगलकरण, स्वयं सन्त है दास॥ ॐ ह्रीं अर्ह महामङ्गलात्मकाजिनाय नमः अर्घ्यं ॥१०२४॥
॥ इति अर्घ सम्पूर्ण ॥
दोहा कहैं कहालों तुम सुगुण, अंशमात्र नहिं अन्त। मंगलीक तुम नाम ही, जानि भजै नित सन्त॥ - ॐ ह्रीं अर्ह अ सि आ उ सा नमः अर्घ। इस मन्त्रं को १०८ बार जापना चाहिए। . ____ॐ ह्रीं अर्घ्य पूर्णस्वगुणजिनाय नमः पूर्णाघु । -
जयमाला - दोहा होनहार तुम गुण कथन, जीभ द्वार नहिं होय। काष्ठ पाँवसैं अनिल थल, नाप सकै नहीं कोय॥ सूक्षम शुद्ध स्वरूप का, कहना है व्यवहार। सो व्यवहारातीत हो, यातें हम लाचार ॥ यह जो हम कछु कहत हैं, शान्ति हेत भगवन्त। बार-बार थुति करन में, नहिं पुनरुक्त भनन्त ॥
पद्धड़ी छन्द मात्रा-१६ जय स्वयं शक्ति आधार योग, जय स्वयं स्वस्थ आनंद भोग। जयस्वयंविकासआभारभास, जयस्वयंसिद्धनिज पदनिवास॥