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श्री सिद्धचक्र विधान
जय स्वयं बुद्ध सङ्कल्प टार, जय स्वयं शुद्ध रागादि जार। जय स्वयं स्वगुन आचार धार, जय स्वयं सुखी अक्षय अपार॥ जय स्वयं चतुष्टय राजमान, जय स्वयं अनन्त सुगुण निधान। जय स्वयं स्वस्थ सुस्थिर अयोग, जय स्वयं स्वरूपमनोगयोग। जय स्वयं स्वच्छ निज ज्ञान पूर, जय स्वयं वीर्य रिपु वज्र चूर। जय महामुनिन आराध्य जान, जय निपुणमती तत्त्वज्ञ मान॥ जय सन्तति मन आनन्दकार जय सजन चित वल्लभ अपार। जयसुरगणगावतहर्ष पाय, जयकवियशकथननकरिअघाय॥ तुम महा तीर्थ भवि तरण हेत, तुम महा धर्म उद्धार देत। तुम महामन्त्र विष विघ्न जार, अघ रोग रसायन कहो सार॥ तुम महाशास्त्र के मूल ज्ञेय, तुम महा तत्त्व हो उपादेय। तिहुँ लोक महामंगल सु रूप, लोकत्रय सर्वोत्तम अनूप॥ तिहुँलोक शरण अघहर महान, भविदेत परम पद सुख निधान। संसार महासागर अथाह, नित जन्म-मरण धारा प्रवाह ॥ सो काल अनन्त दियो बिताय, तामें झकोर दुःख रूप खाय। मो दुःखी देख उर दया आन, इम पार करो कर ग्रहण पान॥ तुम ही हो इस पुरुषार्थ जोग, अरु है अशक्त करि विषय रोग। सुर नर पशु दास कहैं अनन्त, इन में से भी इक जान "सन्त"॥
घत्ता-कवित्त जय विघन जलधि जल, हनन पवन बल,
सकल पाप मल जारन हो। जय मोह उपल हन, वज्र असल दुःख,
अनिल ताप जल कारन हो॥