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श्री सिद्धचक्र विधान
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परम मुनीश्वर ध्यान धर, पावै निज पद सार। ज्यों रविबिंब प्रकाश कर, घटपट सहज निहार॥
ॐ ह्रीं अहँ ध्येयगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१००८ ॥ कवलाहारी कहत हैं, महामूढ़ मतिमन्द। अशन असाता पीर बिन, आप भये सुख कन्द॥ ____ॐ ह्रीं अहँ अशनदग्धाय नमः अर्घ्यं ॥१००९॥ लोक शीश छबि देत हो, धरो प्रकाश अनूप। बुधदन आदर जोग हो, सहज अकम्प सरूप॥
ॐ ह्रीं अहँ त्रिलोकमणये नमः अर्घ्यं ॥१०१०॥ . महागुणन की रास हो, लोकालोक प्रजन्त। सुर मुनि पार न पावते, तुम्हें नमें नित सन्त॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अनन्तगुणप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥१०११॥ परम सु गुण परिपूर्ण हो, मलिन भाव नहिं लेश। जगजीवन आराध्य हो, हम तुम यही विशेष॥ - ॐ ह्रीं अहँ परमात्मने नमः अर्घ्यं ॥१०१२॥ केवल ऋद्धि महान है, अतिशय युत तप सार। सो तुम पायो सहज ही, मुनिगण वन्दनहार॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह महाऋषये नमः अर्घ्यं ॥१०१३ ॥
भूत भविष्यत् काल को, कभी न होवे अन्त। नितप्रति शिवपद पाय कर, होत अनन्तानन्त॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०१४॥ निर्भय निर आकुलित हो, स्वयं स्वस्थ निरखेद। काहू विधि घबराहट नहीं, निज आनन्द अभेद॥
- ॐ ह्रीं अहँ अक्षोभाय नमः अर्घ्यं ॥१०१५ ।।