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श्री सिद्धचक्र विधान
जे अविभाव प्रछेद है, इक गुण के सु अनन्त। तुम में पूरण गुण सही, धरो अनन्तानन्त ॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तानन्तगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१००० ॥ पर मिलाप नहीं लेश है, स्वप्रदेशमय रूप। क्षयोपसम ज्ञानी तुम्हें, जानत नहीं स्वरूप॥
ॐ ह्रीं अहँ आत्मरूपाय नमः अर्घ्यं ॥१००१॥ क्षमा आत्म को भाव है, क्रोध कर्मसो घात। सो तुम कर्म खिपाइयो, क्षमासु भाव धरात॥
ॐ ह्रीं अहँ महाक्षमाय नमः अर्घ्यं ॥१००२॥ . शील सुभाव सु आत्म को, क्षोभ रहित सुखदाय। निर-आकुलता धार है, बन्दूं तिनके पाय॥
ॐ ह्रीं अहँ महाशीलाय नमः अर्घ्यं ॥१००३ ॥ शशि स्वभाव ज्यों शांति धर, और न शांति धराय। आप शांति पर शांति कर, भव दुःख दाह मिटाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह महाशान्ताय नमः अर्घ्यं ॥१००४॥ तुम सम को बलवान है, जीत्यो मोह प्रचण्ड। धरो अनन्त स्ववीर्य को, निजपद सुथिर अमण्ड। ___ ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तवीर्यात्मकाय नमः अर्घ्यं ॥१००५ ॥ लोकालोक विलोकियो, संशय बिन इकवार। खेदरहित निश्चल सुखी, स्वच्छ आरसीसार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ लोकालोकज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥१००६ ॥ निरावर्ण स्वै गुण सहित, निजानन्द रस भोग।
अव्यय अविनाशी सदा, अजर अमर शुभ योग॥ . ॐ ह्रीं अहँ निरावर्णाय नमः अर्घ्यं ॥१००७॥