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श्री सिद्धचक्र विधान
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भाव शुद्ध परमात्मा, द्रव्य शुद्ध बिन देह।. कर्म वर्गणा नहिं लिपे, पूजत हूँ धरि नेह॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह द्रव्यशुद्धाय नमः अर्घ्यं ९९२॥ पञ्च प्रकार शरीर को, सूल कियो विध्वंश। स्व प्रदेशमय राजते, पर मिलाप नहीं अंश।
ॐ ह्रीं अर्ह अदेहाय नमः अयं ॥९९३ ॥ जाको फेर न जन्म है, फिर नाहीं संसार। सो पञ्चमगति शिवमई, पायो तुम निरधार॥
ॐ ह्रीं अहँ अपुनर्भवाय नमः अयं ॥९९४॥ सकल इन्द्रियाँ व्यर्थ करि, केवलज्ञान सहाय। सब द्रव्यन को ज्ञान हैं, गुण अनन्त पर्याय॥
___ ॐ ह्रीं अहँ ज्ञानैकविदे नमः अर्घ्यं ॥९९५ ॥ जीव मात्र निज धन सहित, गुण समूह मणि खान। अन्य विभाव विभव नहीं, महाशुद्ध अमलान ॥
ॐ ह्रीं अहँ जीवधनाय नमः अयं ॥९९६ ॥ सिद्ध भये परसिद्ध तुम, निज पुरुषारथ साथ। महाशुद्ध निज आत्ममय, सदा रहो निरवाद ॥
ॐ ह्रीं अहँ सिद्धपरमात्मने नमः अयं ॥९९७॥ लोक शिखर पर थिर भए, ज्यों मन्दिर मणिकुम्भ। निज शरीर अवगाह में, अचल सुथान अलुम्भ। ___ ॐ ह्रीं अहँ लोकाग्रस्थिताय नमः अर्घ्यं ॥९९८॥ सहज निरामय भेद बिन, निराबाध निस्संग। एक रूप सामान्य हो, निज विशेषमई अंग॥
ॐ ह्रीं अहँ निर्द्वन्दाय नमः अर्घ्यं ॥९९९ ॥