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श्री सिद्धचक्र विधान
अरहन्तादि उपासना, मोह उदय सो होय। स्वयं ज्ञान में लय भए, मोह कर्म को खोय॥
___ॐ ह्रीं अर्ह अदीक्षकाय नमः अर्घ्यं ॥९८४॥ गौण रूप परिणाम है, मुख ध्रुवता गुणधार। अक्षय अवनीश्वर स्वपद, स्वस्थ सुथिर अविकार॥
ॐ ह्रीं अहँ अक्षयाय नमः अर्घ्यं ॥९८५॥. सूक्षम शुद्ध स्वभाव है, लहै न गणधर पार। इन्द्र तथा अहमिन्द्र सब, अभिलाषित उर धार॥
ॐ ह्रीं अहँ अगम्याय नमः अयं ॥९८६॥ . अचल शिवालय के वि, टङ्कोत्कीर्ण समान। सदा विराजो सुख सहित, जगत भ्रमण को हान॥
___ॐ ह्रीं अहँ अगमकाय नमः अर्घ्यं ॥९८७॥ रमण योग छद्मस्थ के, नाहिं अलिंग सरूप। पर प्रवेश बिन शुद्धता, धारत सहज अनूप॥ . ॐ ह्रीं अहँ अरम्याय नमः अर्घ्यं ॥९८८॥ पर पदार्थ इच्छुक नहीं, इष्टानिष्ट निवार। सुथिर रहो निज आत्म में, बन्दत हूँ हित धार॥
ॐ ह्रीं अहँ अमरकाय नमः अर्घ्यं ॥९८९॥ जाको पार न पाइयो, अवधि रहित अत्यन्त। सो तुम ज्ञान महान है, आशा राखे सन्त॥
ॐ ह्रीं अहँ ज्ञाननिर्भराय नमः अर्घ्यं ॥९९० ॥ मुनिजन जिन सेवन करें, पावै निज पद सार। महा शुद्ध उपयोगमय, वरतत हैं सुखकार॥
ॐ ह्रीं अहँ महायोगीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥९९१ ॥