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श्री सिद्धचक्र विधान १०२] २०२.... ..श्री सिद्धचक्र विधान......... वस्तुता व्यवहार नहीं हैं, उपस्वरूप असत्यारथ कहैं। शुद्धस्वरूपनताकरिसाध्यहैं, निर्विकल्पसमाधिआराध्यहैं।
___ ॐ ह्रीं अशुद्धरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८॥ द्रव्य पर्यायार्थिक नयदोऊ, स्वानुभवमें विकलपनहिं कोऊ। सिद्ध शुद्धाशुद्ध अतीत हो, नमत तुम तिनपद परतीत हो॥ ॐ ह्रीं शुद्धाशुद्धरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८७॥
चौपाई क्षय उपशमअवलोकनटारो, निजगुणक्षायक रूपउघारो। युगपत सकल चराचर देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा॥
ॐ ह्रीं अनन्तदृगानन्दस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१८८॥ जब पूरण अवलोकन पायो, तब पूरण आनन्द उपायो। अविनाभाव स्वयं पद देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा। ___ॐ ह्रीं अनन्तदृगानन्दस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१८९॥ नाश सुपूर्वक हो उतपादा, सत लक्षण परिणति मरजादा। क्षय उपशम तन क्षायक पेखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा॥ ____ ॐ ह्रीं अनन्तदृगुत्पादकाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१९०॥ नित्य रूप निज चित पद माही, अन्य रूप पलटन हो नाहीं। द्रव्य-दृष्टि में यह गुण देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा॥
ॐ ह्रीं अनन्तध्रुवाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९१॥ कर्म नाश जो स्वापद पावै, रञ्च मात्र फिर अन्त न आवै। यह अव्यय गुण तुममें देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा॥
ॐ हीं अव्ययभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१९२॥