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श्री सिद्धचक्र विधान
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पर नहीं व्यापै तुमपद माही, पर में रमण भाव तुम नाहीं। निजकरिनिजमें निजलयदेखा, ध्यावतहूँमनहर्ष विशेषा॥ ॐ ह्रीं अनन्तनिलयाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१९३॥
शंखनारी छन्द अनन्ताभिधानो, गुणकारजानो, धरोआपसोई, न मानखोई॥
ॐ ह्रीं अनन्ताकाराय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९४॥ अनन्तास्वभावा, विशेषनउपावा, धरोआपसोई, नमूंमानखोई॥ ___ॐ ह्रीं अनन्तस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९५ ॥ बिनाकाररूपा, चिन्मयस्वरूपा, धरोआपसोई, नमूंमानखोई॥
ॐ ह्रीं चिन्मयस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९६ ॥ सदा चेतना में, नहोअन्यता में,धरोआपसोई, नमूंमानखोई॥
हीं चिद्रूपस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९७॥
दोहा
जो कछु भाव विशेष हैं, सब चिद्रूपी धर्म। असाधारण पूरण भये, नमत नशें सब कर्म ॥
ॐ ह्रीं चिद्रूपधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९८॥ परकृति व्याधि विनाश के, निज अनुभव की प्राप्त। भई, नमूं तिनको, लहूँ यह जगवास समाप्त ॥
ॐ ह्रीं स्वानुभवोफलब्धिरमाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१९९॥ निरावरण निज ज्ञान करि, निज अनुभव की डोर। गहो लहो थिरता रहो, रमण ठौर नहीं और ॥
ॐ ह्रीं स्वानुभूतिरताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२०॥