________________
श्री सिद्धचक्र विधान
[२३७
चमरनि करि भक्ती करें, देव चार परकार। यह विभूति तुम ही वि., बन्दूं पाप निवार॥
ॐ ह्रीं अहं चतुःषष्ठीचामराय नमः अयं ॥२९० ॥ देव दुन्दुभी शब्द करि, सदा करें जयकार। तथा आप परसिद्ध हो, ढोल शब्द उनहार॥
ॐ ह्रीं अहँ देवदुन्दुभये नमः अयं ॥२९१॥ तुम वाणी सब मनन कर, समझत हैं इकसार। अक्षरार्थ नहिं भ्रम पड़े, संशय मोह निवार॥ . ॐ ह्रीं अहँ वाकस्पष्टाय नमः अयं ॥२९२॥ धनपरि रचि तुम आसनं, महा प्रभूता जान। तथा स्व आसन पाइयो, अचल रहो शिवथान॥
___ॐ ह्रीं अहँ लब्धासनाय नमः अर्घ्यं ॥२९३॥ तीन लोक के नाथ हो, तीन छत्र विख्यात। भव्य जीव तुम छाँह में, सदा स्व आनन्द पात।
___ॐ ह्रीं अहं छत्रत्रयाय नमः अर्घ्यं ॥२९४॥ पुष्प वृष्टि सुर करत हैं, तीनों काल मझार। तुम सुगन्ध दश दिश रमी, भविजन भ्रमर निहार॥ _ ॐ ह्रीं अर्ह पुष्पवृष्टये नमः अर्घ्यं ॥२९५ ॥ देव रचित अशोक है, वृक्ष महा रमणीक। समोशरण शोभा प्रभु, शोक निवारण ठीक॥ __ह्रीं अहं दिव्याशोकाय नमः अयं ॥२९६ ॥ मानस्तम्भ निहार के, कुमतिन मान गलाय। समोशरण प्रभुता कहै, नमूं भक्ति उर लाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह मानस्थम्भाय नमः अर्घ्यं ॥२९७॥