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श्री सिद्धचक्र विधान
ध्यावत हैं नितप्रति तुम्हें, देव चार परकार। तुम देवन के देव हो, नमूं भक्ति उर धार॥
ॐ ह्रीं अर्ह देवाधिदेवाय नमः अयं ॥२८२॥ इन्द्र समान न भक्त हैं, तुम समान नहीं देव। ध्यावत हैं नित भावसों, मोक्ष लहैं स्वयमेव॥
___ॐ ह्रीं अहँ शक्रार्चिताय नमः अर्घ्यं ॥२८३ ॥ तुम देवन के देव हो, सदा पूजने योग्य। जे पूजत हैं भावसों, भोगैं शिवसुख भोग्य॥
ॐ ह्रीं अहँ देवदेवाय नमः अध्यं ॥२८४॥.. तीन लोक सिरताज हो, तुम से बड़ा न कोय। . सुरनर पशु खग ध्यावते, दुविधा मन की खोय॥
ॐ ह्रीं अहं जगद्गुरवे नमः अयं ॥२८५॥ जो हो सो हो तुम सही, नहीं समझ में आय। सुरनर मुनि सब ध्यावते, तुम वाणी को पाय॥
ॐ ह्रीं अहँ संहूतदेवसंघाचार्याय नमः अर्घ्यं ॥२८६॥ ज्ञानानन्द स्वलक्ष्मी, ताके हो भरतार । स्वसुगन्ध वासित रहो, कमल गन्ध की सार॥
ॐ ह्रीं अहँ पद्मनन्दाय नमः अर्घ्यं ॥२८७॥ सब कुवादि वादी हते, वज्र शैल उनहार। विजय ध्वजा फहरात है, बन्दूं भक्ति विचार॥
ॐ ह्रीं अहं जयध्वजाय नमः अयं ॥२८८॥ दशों दिशा परकाश है, तिन की ज्योति अमन्द। भविजन कुमुद विकाश हो, बन्दूं पूरण चन्द॥
ॐ ह्रीं अर्ह भामण्डलिने नमः अर्घ्यं ॥२८९ ॥