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श्री सिद्धचक्र विधान
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मगन रहो निज तत्व में, द्रव्य भाव विधि नाश। जो है सो है विविध विध, नमूं अचल अविनाश॥
ॐ ह्रीं अहं भावाय नमः अर्घ्यं ॥२७४॥ तीन लोक सिरताज हैं, इन्द्रादिक करि पूज्य। धर्मनाथ प्रतिपाल जग, और नहीं है दूज्य॥
ॐ ह्रीं अहँ महपतये नमः अयं ॥२७५ ॥ महाभाग सरधानतें, तुम. अनुभव करि जीव। सो पुनि सेवत पाप तज, निजसुख लहैं सदीव॥
ॐ ह्रीं अहँ महायज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥२७६ ॥ यज्ञ विधि उपदेश में, तुम अग्रेश्वर जान। यज्ञ रचावनहार तुम, तुम ही हो यजमान॥
। ॐ ह्रीं अहँ अग्रयाजकाय नमः अर्घ्यं ॥२७७॥ · तीन लोक के पूज्य हो, भक्ति भाव उर धार। धर्म अर्थ अरु मोक्ष के, दाता तुम हो सार॥
. ॐ ह्रीं अहँ जगत्पूज्याय नमः अर्घ्यं ॥२७८ ॥ दया मोह पर पापतें, दूर भये स्वतन्त्र । ब्रह्मज्ञान में लय सदा, जपूं नाम तुम मन्त्र ॥
ॐ ह्रीं अहँ दयायागाय नमः अर्घ्यं ॥२७९॥ तुम ही पूजन योग्य हो, तुम ही हो आराध्य। महा साधु सुख हेतुतें, साधे हैं निज साध्य ॥
ॐ ह्रीं अहँ पूज्यााय नमः अयं ॥२८०॥ निज पुरुषारथ सधन को, तुम को अर्चत जक्त। मनवांछित दातार हो, शिवसुख पावें भक्त॥
___ ॐ ह्रीं अहँ जगदर्चिताय नमः अर्घ्यं ॥२८१॥