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श्री सिद्धचक्र विधान
भक्ति भी अह सङ्गीताहा को अष्टल टार॥
सुरदेवी संगीत कर, गावैं शुभ गुण गान। भक्ति भाव उर में जगें, बन्दत श्री भगवान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ सङ्गीतार्हाय नमः अध्यं ॥२९८ ॥ मंगल सूचक चिह्न हैं, कहे अष्ट परकार। तुम समीप राजत 'सदा, नमूं अमंगल टार॥
ॐ ह्रीं अहँ अष्टमङ्गलाय नमः अयं ॥२९९ ॥ भविजन तरिये तीर्थसों, तुम हो श्री भगवान। कोई न भंगे आन जिन, तीर्थ-चक्रसो जान॥
ॐ ह्रीं अहं तीर्थचक्रवर्तिने नमः अर्घ्यं ॥३०॥ सम्यग्दर्शन धरत हो, निश्चय परम अगाढ़। संशय आदिक मेटि के, नासो सकल बिगाढ़॥
ॐ ह्रीं अहँ सुदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥३०१॥ । कर्ता हो शिव काज के, ब्रह्मा जग की रीति। वर्णाश्रम को थापकें, प्रगटायी शुभ नीति॥
ॐ ह्रीं अहँ कर्त्रे नमः अर्घ्यं ॥३०२॥ सत्य धर्म प्रतिपाल के, पोषत हो संसार। यति श्रावक दो धर्म के, भये नाथ सुखकार ॥
ॐ ह्रीं अहँ तीर्थमन्त्रे नमः अयं ॥३०३॥ धर्म-तीर्थ मुनिराज हैं, तिन के हो तुम स्वाम। धर्मनाथ तुम जान के, नितप्रति करूँ प्रणाम।
ॐ ह्रीं अहं तीर्थशाय नमः अयं ॥३०४॥ लोक-तीर्थ में गिनत हैं, धर्म-तीर्थ परधान। सो तुम राजत सो सदा, मैं बन्दू धरि ध्यान॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ धर्मतीर्थङ्कराय नमः अयं ॥३०५॥