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श्री सिद्धचक्र विधान
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तुम बिन धर्म न हो कभी, ढूंढो सकल जहान। दश लक्षण स्वैधर्म के, तीरथ हो परधान॥
ॐ ह्रीं अहं धर्मतीर्थताय नमः अध्यं ॥३०६॥ धर्म-तीर्थ करतार हो, श्रावक या मुनिराज। दोनों विधि उत्तम कहो, स्वर्ग मोक्ष के काज॥
ॐ हीं अहं धर्मतीर्थङ्कराय नमः अध्यं ॥३०७॥ तुम से धर्म चले सदा, तुम्हीं धर्म के मूल। सुरनर मुनि पूर्णं सदा, छिदहिं कर्म के शूल.॥ __ॐ ह्रीं अहँ तीर्थप्रवर्तकाय नमः अयं ॥३०८॥ धर्मनाथ जग में प्रगट, तारण-तरण जिहाज। तीन लोक अधिपति कहो, बन्दूं सुख के काज॥ . ॐ ह्रीं अर्ह तीर्थवेधसे नमः अर्घ्यं ॥३०९॥ श्रावक या मुनि धर्म के, हो दिखलावनहार। अन्य लिंग नहिं धर्म के, बुधजन लखो विचार॥ ___. ॐ ह्रीं अर्ह तीर्थविधाकाय नमः अयं ॥३१०॥ स्वर्ग मोक्ष दातार हो, तुम्ही मार्ग सुखदान। अन्य कुभेषिन में नहीं, धर्म यथारथ ज्ञान॥ . ॐ ह्रीं अहँ सत्यतीर्थङ्कराय नमः अयं ॥३११॥ सेवन योग्य सु जक्त में, तुम्हीं तीर्थ हो सार। सुरनर मुनि सेवन करें, मैं बन्दूं दुःख टार॥
ॐ ह्रीं अहँ तीर्थसेव्याय नमः अयं ॥३१२ ॥ भवि समुद्र भवसैं तिरै, सो तुम तीर्थ कहाय। हो तारण तिहुँलोक में, खेवत हूँ तुम पाय॥
ॐ ह्रीं अहँ तीर्थतारकाय नमः अयं ॥३१३ ॥