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श्री सिद्धचक्र विधान
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यही औदारिक बन्धन तुमने, छेद किये निरधारा। भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजू भक्ति उर धारा॥ ___ॐ ह्रीं औदारिकबन्धनरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥७४ ॥ वैक्रियिक तनु परमाणु मिल, परस्परा अनिवारा। हो स्कन्ध रूप पर्यायी, यह बन्धन परकारा॥ वैक्रियिक तनु बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा। भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजू भक्ति उर धारा॥ ___ ॐ ह्रीं वैक्रियिकबन्धनछेदकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥७५ ॥ मुनि शरीरसों वाहिज निसरे, संशय नाशन हारा। ताके मिले प्रदेश परस्पर, हो सम्बन्ध अवारा॥ यही आहारक बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा। भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजू भक्ति उर धारा॥ ___ॐ ह्रीं आहारकबन्धनछेदकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥७६ ॥ दीप्त जोति जो कारमाण की, रहै निरन्तर लारा। जहाँ-तहाँ नहिं बिखरै कन ज्यों, बहै एक ही धारा॥ तैजस नामा बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा। भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजू भक्ति उर धारा॥
ॐ ह्रीं तैजसबन्धरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ७७ ॥ द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादिक, पुद्गल जातीय सारा। एक क्षेत्र अवगाही जिय को, दुविधि भाव करतारा॥ कारमाण यह बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा॥ भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजूं भक्ति उर धारा॥
ॐ ह्रीं कार्माणबन्धरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥७८ ॥